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नीरज की पुण्यतिथि पर विशेषः ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम मेरा गीत दिया बन जाए

प्राणों और सांसों में बस जाने वाले गीतों के रचयिता गोपालदास नीरज की यह दूसरी पुण्‍यतिथि है. दो साल पूर्व उनके अवसान से हिंदी गीत की एक बड़ी परंपरा का अवसान हो गया है. गोपाल सिंह नेपाली, बच्चन और दिनकर के बाद वे हिंदी पट्टी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि थे जिन्हें जितने चाव से पढ़ा और गुनगुनाया जाता था, उतने ही चाव से सुना जाता था. पहली बार उनके गीतों में जीवन, प्रेम, मृत्यु, अवसान, अस्तित्व और मनुष्य की सांसारिक अर्थवत्ता को बड़ी ही मार्मिकता से उठाया गया. नीरज ने निज के अभावों और पीड़ा को भी गान में बदल दिया था. युवावस्था के प्रेम की प्रतीति में वे लगभग सारी उम्र खोए रहे और आजीवन प्रेम का संदेश देते रहे. मंच पर हमेशा उनकी बादशाहत कायम रही.

गोपालदास ‘नीरज’ उस युग के कवि थे जब मंचों पर बच्चन, रमानाथ अवस्थी, भारतभूषण, बालकवि बैरागी, शिवमंगल सिंह सुमन और वीरेन्द्र मिश्र की आवाज का जादू चलता था. नीरज की आवाज में ऐसी घनीभूत सांद्रता थी, जो सुनने वाले को अपने प्रभामंडल में समेट लेती थी. कवि सम्मेलन का एक या दो दौर पूरा होने के बाद मंच नीरज जैसे कवियों के हवाले हो जाता था जो सुबह तक अपनी कविताओं का सुर बिखेरते थे. आज मंचों पर हंसने हँसाने के सारे नुस्खे मौजूद हैं पर गीतों में प्राणतत्व भरने वाले नीरज जैसे कवि नहीं रहे. वह आलाप खो गया है जिसके लिए नीरज जाने जाते थे.

गीतों के लिए जैसी भाषा, जैसे भाव, जैसे शिल्प की जरूरत होती है, नीरज को वह नैसर्गिक रूप से सुलभ था. वे वास्तव में वाणी के वरदपुत्र थे. उनका एक गीत है :
अंधियारा जिससे शरमाये,
उजियारा जिसको ललचाये,
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दिया बन जाये!

इतने छलको अश्रु थके हर
राहगीर के चरण धो सकूं,
इतना निर्धन करो कि हर
दरवाजे पर सर्वस्व खो सकूं

ऐसी पीर भरो प्राणों में
नींद न आये जनम-जनम तक,
इतनी सुध-बुध हरो कि
सांवरिया खुद बांसुरिया बन जाये!

नीरज के गीतों की यह मुद्रा जानी पहचानी है. लगभग सात दशक से कविता और गीतों के मंच पर लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ़ नीरज ने जैसे अपने प्राणों, सांसों और संवेदना की रोशनाई से हिंदी कविता को सींचा है. जिस दौर में पाठ्य कवियों और मंचीय कवियों में अधिक भेद न था, बच्चन, दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे कवियों ने अपनी कविताओं से कवि सम्मेलनों के माध्‍यम से लाखों लोगों में जीवन-रस का संचार किया था, एक सुदृढ़ कवि-परंपरा निर्मित की थी, उसी दौर में कवि मंच पर नीरज का अवतरण हुआ. उनकी कविता जैसे अपनी कवि परंपरा से आयत्त जीवन मूल्यों का वहन करती दिखती थी. वे ऐसे कवियों में थे जिन्होंने सदियों की कविता परंपरा में न्यस्त छंद परंपरा का वहन किया जिसने कई पीढ़ियों को कविता के संस्कार दिए हैं.

उस दौर के कवि सम्मेलनों की परंपरा देखें तो कवि मंचों पर आज के सतही हास्य-व्यंग्य और नकली ओज के कवियों का प्रवेश लगभग निषिद्ध था. इन कवियों की कविताओं में जीवन दर्शन की मिठास थी, भाव और संवेदना का एक समुद्र-सा लहराता था, बोलचाल में निबद्ध कविता सुनने वालों में जीवन का संचार करती थी. नीरज की कविता इसी तरह चुपके चुपके लोगों के जीवन में घर बनाती गयी. बाद के अनेक वषों तक कवि सम्मेलनों की बागडोर आधी रात के बाद अपने हाथ ले लेने वाले नीरज के गीतों से ही सुबह हुआ करती थी.

नीरज गीतों के राजकुमार और छंदों के बादशाह बने. उनके गीतों से मनुष्य को जीने की प्रेरणा मिलती थी. थके हारे को एक सुकून व विश्रांति और दग्धहृदय व्यक्ति को प्रेम और अनुराग की सच्ची अनुभूति-और-प्रतीति. कहना न होगा कि कविता की मुख्यधारा से प्रीति रखने वाले लाखों लोगों ने नीरज के गीतों से प्रेरणा ली है. नीरज के गीतों से आशिकी के चलते वे कविता के रसिक बने और धीरे धीरे कविता के विपुल सृजन संसार से परिचित हुए.

सुख दुख के गायक…

नीरज के गीतों में मनुष्य की पीड़ा भी है, पीड़ा का बखान भी तो इससे उबरने का मूलमंत्र भी निहित है. उनके गीतों में मनुष्य की वेदना है तो प्रणय की बांसुरी भी सुनाई देती है. लाख जीवन नैराश्य में डूबा हो, नीरज के गीत गुनगुनाते ही आशा की कुमुदिनी खिल उठती है. ‘पीर मेरी, प्यार बन जा’ कह कर उन्होंने मानवीय पीर को स्नेहसिक्त छंदों में बदल दिया है. उनके गीतों में निज की पीर भी है, मैं और तुम के बीच का अनथक एकालाप भी है तथा समूचे जग को संबोधित उदगार भी. आप निराशा में डूबे हैं, प्यार में छले गए हैं, प्रारब्ध ने आपके साथ प्रतिकूल व्यवहार किया है, नीरज के गीत व्यक्ति के मन के घावों पर मरहम का काम करते हैं. वे इस छलनामय जीवन में विश्वास और प्रेरणा का बोध पुनर्जाग्रत करते हैं. वे यह ऐलान करने को कहते हैं कि अब जमाने को खबर कर दो कि नीरज गा रहा है. जैसे कि गाना ही मनुष्यता की प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करना है.
हर छलकती आँख को वीणा थमा दो,
हर सिसकती साँस को कोयल बना दो,
हर लुटे सिंगार को पायल पिन्हा दो,
चाँदनी के कंठ में डाले भुजाएँ,
गीत फिर मधुमास लाने जा रहा है.
अब जमाने को खबर कर दो कि ‘नीरज’ गा रहा है

बचपन से ही नीरज के गीतों से परिचय हुआ. यद्यपि उनके गीत बोध के स्तर पर सरल न थे, उनमें जीवन की बारीकियां दर्शन के आसान धागों से बुनी गयी प्रतीत होती थीं. पर, धीरे धीरे गाते गुनगुनाते उनके गीतों का भाव मन को भाने लगा. उनके अर्थ कुछ कुछ मन में खुलने लगे. नीरज की यही विशेषता है कि कम पढे लिखे व्याक्तिो से लेकर उच्च शिक्षित समुदाय तक उनके गीत जादू की मानिंद असर करते हैं. जैसा एक शायर ने कहा है कि कहानी मेरी रुदादे जहां मालूम होती है. जो सुनता है उसी की दास्तां मालूम होती है . नीरज के गीतों के साथ कुछ ऐसा ही है. वे लोगों के दुखों से व्यथित होते हैं. जानते हैं कि यह जीवन दुखमय है. किसी को प्यार का अभाव रुलाता है तो किसी को पूँजी का वैभव. किसी को रोटी की किल्लत है तो किसी को अपनों के अपनत्व की. चार आर्यसत्यों के बोध के बाद सिद्धार्थ जैसे बुद्ध बन गए, दुनिया में मान, अपमान, सुख, दुख, आशा, निराशा, हास और रुदन के अंतर्द्वन्द्व को देख नीरज का मन आर्त हो उठा और वह कवि बन गया.

कविता दुख की कोख से ही जन्म लेती है. तभी तो आदि कवि की वाणी तो क्रौंच वध के शोक से ही श्लोक में बदल गयी. नीरज का कवि भी प्रारंभ से ही अभावों और गुरबत से होकर गुजरा है. कानपुर में इस कवि को जीवन के जिस यथार्थ का सामना करना पड़ा. पेट की भूख मिटाने के लिए टाइपिस्ट की नौकरी से लेकर सिनेमा की गेटकीपरी तक की नौकरी करनी पड़ी, सो तन की भूख तो धीरे धीरे मिटती गयी पर मन की भूख गहराती गयी. इसी भूख ने नीरज को वाल्मीकि का वंशज बना दिया. मानवीय दुख को करुणा के गान में बदल देने वाले नीरज ने गए छह-सात दशकों में खूब लिखा है तथा बार बार इस दुख से उबरने का सलीका मनुष्यों को सिखाया है.

प्रेम पथ हो न सूना कभी इसलिए..

नीरज अपने रचना संसार में सदैव प्रेम का पथ बुहारते रहे हैं. प्रेम नहीं तो जीवन नहीं. एक गीत में उन्हों ने लिखा है. प्रेम पथ हो न सूना कभी इसलिए. जिस जगह मैं थकूं उस जगह तुम चलो. याद करें तो समकालीन कवियों में ऐसे कवि विरल ही हैं जिन्होंने प्रेम का ऐसा समुज्वल गान किया है. प्रेम की गली कभी सूनी न हो. हमेशा गुलजार रहे. जिस दुनिया में अनुरागमयता होती है, वह दुनिया कितनी सुंदर होती होगी. कवि हमेशा प्रेम के ही गीत गाता है. वह लौकिक प्रेम हो या अलौकिक. जायसी, कबीर, नानक, रैदास, मीरा ये सब प्रेम के ही तो कवि हैं. इसलिए नीरज गलत नहीं कहते कि देखना प्रेम की राह सूनी न हो. और इस पथ पर चलते चलते थक जाऊँ तो तुम चलना शुरू कर देना. कबीर ने भी ढाई आखर में ही प्रेम की पूरी प्रतीति पा ली. यह ईश्वर से ही उनकी प्रीति थी कि उन्होंने सचाई से मुंह नहीं मोड़ा. किसी सत्ता का मुँह नही जोहा. मीरा ने प्रेम का ही मधुरिम गान किया. हे री मैं तो प्रेम दीवानी मेरो दरद न जाने कोय. तुलसी ने तो ज्ञान को तलवार की धार ही कह डाला. ज्ञान के बदले भक्ति और प्रेम का समर्थन किया. नीरज ने भी अपने कवि की निष्कृति प्रेम में पाई. उन्होंने तभी तो कहा कि प्रेम अगर इस बीमार उम्र की उंगली नहीं पकड़ता तो हर पीड़ा वेश्या बन जाती और हर आंसू आवारा होता. उन्होंने यह भी कहा कि किसी की जिंदगी में अगर कोई प्यार की कहानी नही है तो वह आदमी नहीं है. इसलिए जिंदगी में प्यार का एक खाता जरूर होना चाहिए. आदमी को आदमी बनाने के लिए/जिंदगी में प्यार की कहानी चाहिए. शायद इसलिए जिसके हृदय में प्यार है उसी के हृदय में करुणा का निवास हो सकता है. जो व्यक्ति दूसरों के दर्द से द्रवित नहीं होता, वह खुदा से बहुत दूर होगा. इसी तरह नीरज ने यह भी कहा कि यदि आंखों में प्यार का रस नहीं तो अमीर से अमीर व्यक्ति भी निर्धन है.

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Author: Martand Prabhat

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